देख, अंधकार, नयन बंद होते, दिखते हैं,
पर देख, दु स्वप्न, अचानक आंखें खुल जाती हैं।
डर, डर उठ जाती हूं दु; स्वप्नों से,
सन्नाटा अंधकार में गहरा होता जाता।
उम्मीद लिए प्रकाश की, मन होता फिर सो जाऊं,
कर वरण महामृत्यु का, चेतन से जड़ हो जाऊं।
यह अंधकार भी कहां करवट लेता, कर बेचैन हृदय को,
उतावलेपन से नयन बावले होते से दिखते।
स्वास आशा में अटकी सी उषा की प्रतीक्षा करती सी,
पर रख लाख उम्मीद, भी नहीं जाती निशा अंधेरी।
यह अंधकार मय पृथ्वी, भ्रम का प्रकाश फैलाती,
कर प्रयत्न अथाह प्रकाश नहीं दिखता, बस आने की आहट आती।
पर डर-डर, दु स्वप्नों से, नींद कहां फिर आती।